TOP NEWS

हर खबर आप तक, केवल आजतक 24 न्यूज पर, |    हर खबर आप तक, केवल आजतक 24 न्यूज पर,​ |    हर खबर आप तक, केवल आजतक 24 न्यूज पर, |   

पीएचडी पादप रोग विज्ञान के छात्र ने आलू का चेचक रोग उसका प्रभाव एवं आर्थिक प्रबंधन पर सफल परीक्षण किया

फर्रुखाबाद । शिवम कुमार फर्रुखाबाद जिले के छोटे से गांव पुनपालपुर पोस्ट संकिसा के निवासी है शिवम कुमार चंद्रशेखर आजाद कृषि और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कानपुर उत्तर प्रदेश से पीएचडी पादप रोग विज्ञान से कर रहे हैं 

शिवम कुमार ने परीक्षण में बताया कि आलू का अगेती झुलसा, पछेती झुलसा, बैक्टीरियल विल्ट, कॉमन स्कैब और आलू का वायरस- X,Y से होने वाली प्रमुख बीमारियाँ है।  इन बिमारियों में कॉमन स्कैब एक मृदा और बीज जनित बीमारी है।  जो मुख्य रूप से स्ट्रेप्टोमाइसीस स्केबीज नामक जीवाणु के कारण होती है।  जो दुनिया भर  में आर्थिक नुकसान के लिए जिम्मेदार है।

 यह रोग आमतौर पर कुल पैदावार को प्रभावित नहीं करता है।  परन्तु बाजार के लिए आलू की गुणवत्ता को प्रभावित करता है इस रोग के लक्षण कंदों की सतह पर दिखाई देते हैं।  प्रारंम्भ में कंद बनते समय, इसके  लक्षण छोटे, भूरे, उभरे हुए धब्बों के रूप में शुरू होते है। जो सक्रमंण के कुछ हफ्तों के भीतर पानी से भीगे हुए गोलाकार घावों  में बदल जाते हैं और बाद में यह गोलाकार घाव बड़े होकर आपस में मिल जाते हैं, जिससे बड़ा खुरदरा क्षेत्र बन जाता हैं, तथा कार्की हो जाता हैं। आलू के चेचक रोग के लक्षण आकार में भिन्न - भिन्न प्रकार के कंद की सतह पर होते हैं, जैसे की उथले धब्बों में लक्षण एक सतही खुरदरापन होता हैं, जो अक्सर स्वस्थ त्वचा के तल से थोड़ा नीचे होता हैं, और गहरे धब्बों में घाव आकार में बहुत व्यापक रूप से होता हैं। जिसकी गहराई कंद में 3 से 4 मिलीमीटर तक हो जाती हैं। आलू का चेचक या सामान्य पपड़ी रोग सबसे गंभीर तब होता हैं। जब कंद गर्म, शुष्क मिट्टी की स्थिती में 5.2 से अधिक मिट्टी के पीएच में विकसित होता हैं। आमतौर पर यह स्वीकार किया जाता है कि आलू की मिट्टी को पीएच 5.2 से पर रखा जाए तो रोग पर संतोषजनक रूप से नियंत्रण पाया जा सकता है। इस बीमारी का रोगजनक जीवाणु एक मृतोपजीवी हैं, जो खेत में पड़े अवशेषों की सतह पर या सक्रमित कंदो पर या मिट्टी में पाया जाता हैं। यह संक्रमण आमतौर पर कंद बनते समय शुरू होता हैं, और लेन्टिसेल्स के माध्यम से कंदो को संक्रमित करता हैं। सक्रमण स्थल के चारो ओर की कोशिकाएं मृत (नेक्रोसिस) हो जाती हैं,और आलू की ऊपरी परत पर गड्ढे नुमा घाव बना लेती हैं। बुआई के लिए चेचक संक्रमण रहित स्वस्थ्य कंदो का प्रयोग करना चाहिए।  बुआई के लिए रोग प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करना चाहिए जैसे कि कुफरी लालिमा, कुफरी नीलकंठ इत्यादि।  बुआई से पहले मृदा के पीएच का परिक्षण अवशय कराये यदि मृदा सामान्य या क्षारीय है तो  ऐसे उर्वरको का प्रयोग करें जो अम्लीय प्रकृति के हो जैसे की नाइट्रोजन के स्रोत के रूप में अमोनियम सल्फेट का उपयोग करना चाहिए। बुआई से पहले चूना, राख तथा कच्चे गोबर के इस्तेमाल करने से बचे और यदि चूना आवश्यक हो तो ध्यान रखें की मृदा का पीएच 5.2 से ऊपर न जाने पाये क्योंकि बढ़ती क्षारीयता के साथ इस रोग की गंभीरता भी बढ़ती है।  बुबाई के दो सप्ताह पूर्व आठ से दस कुंतल जिप्सम या पांच कुंतल सल्फर या दस कुंतल सिंगल सुपर फॉस्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से मृदा में मिला देना चाहिए।  कन्दों को बोने से पहले उनका जैवशोधन  स्थूडोमोनास फ्लोरेसेन्स 10 ग्राम प्रति किलोग्राम या बैसिलस सबटिलिस 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से 25-30 मिनट तक उपचारित करके बुआई करनी चाहिए या कन्दों को 3 प्रतिशत बोरिक एसिड के घोल में 25-30 मिनट के लिए उपचारित करने के पश्चात् बुबाई के लिए प्रयोग करे। बुआई के 40 से 45 दिन के पश्चात् कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 1.2  किलोग्राम + 400 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीन  (3:1) प्रति हेक्टेयर की दर से पर्णीय छिड़काव करना चाहिए।

ब्यूरो रिपोर्ट अनुज राजपूत की रिपोर्ट