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Etah - मारहरा और मिरहची में हरे पेड़ों की परमिशन पर उठे सवाल — आखिर कब खत्म होगा “परमिशन वाला खेल”?

 एटा जनपद के मारहरा और मिरहची क्षेत्र में इन दिनों एक ऐसा “खेल” चल रहा है, जो न केवल पर्यावरण के लिए खतरा है बल्कि सरकारी तंत्र की पारदर्शिता पर भी गंभीर सवाल खड़े कर रहा है। बात हो रही है हरे-भरे पेड़ों के कटान की — वो भी तब, जब ये पेड़ पूरी तरह स्वस्थ हैं। सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों इन स्वस्थ पेड़ों को बीमार या रोगग्रस्त बताकर काटने की अनुमति दी जा रही है? और ये “परमिशन” का खेल आखिर कब खत्म होगा?


 परमिशन की आड़ में हरा सोना लुटने का खेल

स्थानीय सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, मारहरा और मिरहची क्षेत्र में वन विभाग द्वारा हरे पेड़ों के कटान की अनुमति दी जा रही है। नियम के अनुसार, किसी भी पेड़ को काटने से पहले वन विभाग की टीम को मौके पर जाकर पेड़ की जांच करनी होती है, यह देखना होता है कि वह पेड़ वास्तव में सूख चुका है या रोगग्रस्त है। लेकिन हकीकत इससे बिल्कुल उलट है। यहाँ पेड़ों की फील्ड जांच किए बिना ही उन्हें “रोगी पेड़” घोषित कर दिया जाता है और इसके बदले में कथित तौर पर मोटी रकम ली जाती है। पेड़ों की सेहत का आकलन किए बिना परमिशन जारी कर देना यह साबित करता है कि कहीं न कहीं विभाग के कुछ जिम्मेदार अधिकारी इस अवैध कटान के खेल में शामिल या दबाव में हैं।


 भ्रष्टाचार की जड़ — पैसे लेकर परमिशन

गांवों के स्थानीय लोगों का कहना है कि यह पूरी प्रक्रिया अब एक व्यवसायिक धंधे का रूप ले चुकी है। पेड़ मालिक या ठेकेदार कुछ रुपयों का लेनदेन कराकर आसानी से परमिशन ले लेते हैं। सूत्र बताते हैं कि एक पेड़ की परमिशन के लिए 1000 से लेकर 5000 रुपये तक का खेल चलता है। यह रकम विभाग के निचले स्तर से लेकर ऊपर तक पहुंचती है। जब अधिकारी स्वयं आंख मूंद लें, तो फिर वन माफिया को क्या डर! परिणामस्वरूप हरे-भरे पेड़ धड़ल्ले से काटे जा रहे हैं और गांव के आस-पास की हरियाली धीरे-धीरे गायब होती जा रही है।


 जनता का सवाल — “क्या जंगल बचाने वाला विभाग ही काटने वाला बन गया है?”

गांव के बुजुर्ग किसान रामनाथ सिंह कहते हैं —

हमारे बचपन में यहाँ चारों तरफ आम, जामुन, सागौन और नीम के पेड़ होते थे। आज हालत यह है कि जहां छांव मिलती थी, वहां अब धूप ही धूप है। बन विभाग अब पेड़ बचाने नहीं, काटने की परमिशन देने में लगा है।”

स्थानीय पर्यावरण प्रेमी योगेश शर्मा का कहना है —

वन विभाग के अधिकारी सिर्फ कागज पर जांच दिखाते हैं। कोई भी मौके पर नहीं आता। पैसा दो, और हरे पेड़ को भी बीमार घोषित करवा दो। ये पर्यावरण के लिए बहुत बड़ा खतरा है।”

 पर्यावरण पर असर — गर्मी बढ़ेगी, भूजल घटेगा

पेड़ों का महत्व सिर्फ छांव या लकड़ी तक सीमित नहीं है। ये धरती का तापमान नियंत्रित करते हैं, बारिश के चक्र को बनाए रखते हैं और भूजल स्तर को संतुलित रखते हैं। लेकिन लगातार हो रहे कटान से भूजल नीचे जा रहा है, तापमान बढ़ रहा है, और क्षेत्र में गर्म हवाएं पहले से ज्यादा तेज महसूस की जा रही हैं।

यदि यही सिलसिला चलता रहा तो आने वाले 5-10 सालों में मारहरा और मिरहची जैसे हरित क्षेत्र रेगिस्तानी रूप धारण कर सकते हैं।


 कागजी जांच बन गई औपचारिकता:-

वन विभाग के रिकॉर्ड में सब कुछ “नियमों के अनुसार” दिखाया जाता है। रिपोर्ट में लिखा जाता है — “पेड़ सूख चुका है”, “रोगग्रस्त है”, “गिरने की स्थिति में है” — और फिर परमिशन जारी कर दी जाती है। लेकिन कोई नहीं जांचता कि क्या वाकई ऐसा है या नहीं।

स्थानीय ग्रामीणों ने कई बार विभाग को शिकायतें दी हैं कि स्वस्थ पेड़ों को बीमार बताकर काटा जा रहा है, लेकिन शिकायतों का कोई असर नहीं पड़ता। कभी कहा जाता है कि जांच चल रही है, तो कभी फाइल “उच्च अधिकारियों” के पास लंबित बता दी जाती है।

 कानून क्या कहता है?

वन अधिनियम 1927 और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के अनुसार, किसी भी निजी भूमि पर मौजूद पेड़ को काटने के लिए संबंधित विभाग से अनुमति आवश्यक है। लेकिन यह अनुमति तभी दी जा सकती है जब पेड़:

1. सूख चुका हो,

2. गिरने की स्थिति में हो, या

3. रोगग्रस्त हो और आसपास के पेड़ों को नुकसान पहुँचा रहा हो।

परंतु मारहरा और मिरहची में मामला उल्टा है — यहाँ स्वस्थ पेड़ों को ही बीमार दिखाकर परमिशन दी जा रही है। यह न केवल कानून का उल्लंघन है बल्कि प्राकृतिक संतुलन के साथ खिलवाड़ भी है।


 प्रशासन की चुप्पी पर सवाल

जनता और स्थानीय सामाजिक संगठनों ने कई बार जिला प्रशासन और वन विभाग को ज्ञापन सौंपे हैं। यहां तक कि कुछ संगठनों ने सोशल मीडिया पर इस कटान के वीडियो और फोटो भी शेयर किए, परंतु कार्रवाई के नाम पर “जांच की बात” कहकर मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

क्या अधिकारियों पर कटान माफियाओं का दबाव है? या फिर कुछ अधिकारी खुद इस खेल का हिस्सा बन चुके हैं?

ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब आम जनता आज भी तलाश रही है।

 अब क्या होगा — क्या कोई सख्त कदम उठेगा?

अगर समय रहते प्रशासन ने इस अवैध कटान को नहीं रोका तो आने वाले वर्षों में मारहरा और मिरहची का नाम हरी पट्टी से मिट जाएगा।

इसलिए ज़रूरी है कि—

हर परमिशन की जांच स्वतंत्र एजेंसी से कराई जाए। ड्रोन सर्वे के जरिए कटे पेड़ों की संख्या और स्थानों की सटीक निगरानी हो।

भ्रष्ट अधिकारियों पर कठोर कार्रवाई की जाए।

और सबसे महत्वपूर्ण — ग्रामीणों को पेड़ बचाने के लिए लोक निगरानी समितियों में शामिल किया जाए।

 निष्कर्ष

मारहरा और मिरहची में चल रहा “पेड़ों की परमिशन” का यह खेल अब जनता की आंखों से ओझल नहीं रहा। लोगों में आक्रोश बढ़ता जा रहा है। सवाल यह नहीं कि पेड़ों की परमिशन कौन दे रहा है — सवाल यह है कि आखिर स्वस्थ पेड़ों की परमिशन दी ही क्यों जा रही है?

अगर अब भी शासन-प्रशासन ने संज्ञान नहीं लिया तो आने वाली पीढ़ियों को सिर्फ “पेड़ों की तस्वीरें” दिखाकर ही बताना पड़ेगा कि यहां कभी हरियाली हुआ करती थी।